नवीन रचनाएँ:---


सोमवार, 5 दिसंबर 2011

'ऐ ज़िंदगी'

चाँद-सूरज की खूंटियों पे,
गीला दिल सूखने को टाँगा था|
अपने लबों की लर्जिश थामने को,
लिया था तेरा दोशीजा चेहरा हाथों में|
ऐ ज़िन्दगी!
क़दम-ताल तो कर ही रहा हूँ
तेरे साथ,
मगर-
इतना तो बता दे,
के,
तेरी धुन इतनी मोहक क्यूँ है?  


शनिवार, 3 दिसंबर 2011

"तेरी हथेली पर ऐ वक़्त!"

जय श्री राम ............| आदरणीय मित्रो, पूरे एक साल का बहुत लंबा समय बीत गया है यहाँ आपसे बात किये| जब यह ब्लॉग शुरू किया तब सोच तो यह था कि आपसे रोज़ एक पोस्ट शेयर करेंगे; मगर देखिए न, पूरे एक साल का अंतराल आ गया| चलिए, अब कोशिश करेंगे कि इस तरह की बात फिर ना हो| आज हमारी शादी की सालगिरह भी है| इस मौक़े पर कोई पुरानी रचना न लेकर हाथोहाथ ही लिखी जा रही रचना ही आपकी सेवा में रख रहे हैं|
                          
मैंने,
       एक बूँद में तेरा चेहरा रख कर,
      उस से वजूद में अपने
                               भर लिया उजाला|
      जज्बातों की गर्मी से
      फोड़ दिये
                               शबनम के ओले|
मैंने,
       दूज के चाँद की कोरों से  
       उकेरा था चेहरा किसी का|
वक़्त,
       तुम तब भी मेरे साथ नहीं थे
और
       तुम अब भी मेरे साथ नहीं हो;
मगर---
            मुझे इससे फ़र्क भी कहाँ पड़ता है;
मैं अपने आप के साथ चला जा रहा हूँ,
            बेहद पुख्तगी के साथ
           अपने नक्श-ए-पा
           जमाते हुए
                           तेरी हथेली पे|