" कुछ लम्हे जब दिल की दीवारें कुरेच कर अन्दर उतर आते हैं,तो आँखों के ग़र्म पानी और दिल के जज़्बों को लफ़्ज़ों के साथ कर देता हूँ |... लोग कहते हैं कि मैंने ग़ज़लें-नज़्में कही हैं | "
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
" मेरी ताक़त "
मैंने-
खायी हैं,
ठोकरें;
मैंने-
सहा है;
दर्द भी ;
मैंने-
लड़ी है लड़ाई,
वक़्त से भी;
मैंने-
लड़ाया है पंजा,
हालात से;
मैं-
पस्त नहीं हुआ,
मुसीबतों से;
मैं,
गिरा नहीं,
संकटों के आगे;
मैं,
गिड़गिड़ाया नहीं,
हालात के सामने;
डटा रहा,
लड़ता रहा,
जूझता रहा,
मैंने-
हर मुश्किल को,
पटका है-जीता है,
क्योंकि-
मेरी सब से बड़ी ताक़त,
श्रीमद्भगवद्गीता है |
(रचना-तिथि:---11-10-2010)
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
" तलाश एक सत्य की "
सत्य से परे ,
एक सत्य की तलाश,
जीवन की परतों के भीतर,
वर्जित है प्रवेश मेरा,
कहीं,
मैं स्वयं की यात्रा न कर लूँ,
वर्जनाओं के तांडव के बीच,
जारी है तलाश,
सत्य से परे,
एक सत्य की |
(रचना-तिथि:---15-02-1998)
एक सत्य की तलाश,
जीवन की परतों के भीतर,
वर्जित है प्रवेश मेरा,
कहीं,
मैं स्वयं की यात्रा न कर लूँ,
वर्जनाओं के तांडव के बीच,
जारी है तलाश,
सत्य से परे,
एक सत्य की |
(रचना-तिथि:---15-02-1998)
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
ग़ज़ल---" धरती की तरह इजहार करो "
इनकार करो, इक़रार करो
प' आज हमें तुम प्यार करो
जग समझे चाहे कुछ भी हमें
प'तुम हम पे ऐतबार करो
गीतों में सजा कर लाया हूँ
ये भेंट मेरी स्वीकार करो
आँखों में बसा लो नभ की तरा
धरती की तरा इजहार करो
मनमीत बना लो हम को तुम
हम पर इतना उपकार करो
ये 'कुमार' तुम्हारा अपना है
तुम अपनी जुबां से इक़रार करो
(रचना-तिथि:---26-04-1991)
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010
ग़ज़ल---" तनहाइयाँ "
हम को अब तक दे रही है,ज़िन्दगी तनहाइयाँ
हर नफ़स,हर तार में बस,सिर्फ़ हैं तनहाइयाँ
साथ छोड़ दिया है तेरे, ग़म ने भी अब तो
हैं फ़क़त चार सू अब,अपने तो तनहाइयाँ
मुझको मुल्के-ख़्वाब से, ना बुलाओ दोस्तो,
आँखें खोलते वे ही फिर,घेर लेंगी तनहाइयाँ
रात का सन्नाटा हाँ कुछ, गा कर सुनाता है
दूर तक फ़जां में अब तो,हैं बसी तनहाइयाँ
(रचना-तिथि:---28-07-1992)
हर नफ़स,हर तार में बस,सिर्फ़ हैं तनहाइयाँ
साथ छोड़ दिया है तेरे, ग़म ने भी अब तो
हैं फ़क़त चार सू अब,अपने तो तनहाइयाँ
मुझको मुल्के-ख़्वाब से, ना बुलाओ दोस्तो,
आँखें खोलते वे ही फिर,घेर लेंगी तनहाइयाँ
रात का सन्नाटा हाँ कुछ, गा कर सुनाता है
दूर तक फ़जां में अब तो,हैं बसी तनहाइयाँ
(रचना-तिथि:---28-07-1992)
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
नज़्म---" फ़ीनिक्स "
राघवेन्द्र श्री राम
और
यादवेन्द्र श्री कृष्ण
का रीमिक्स हूँ,
मैं
फ़ीनिक्स हूँ |
(रचना-तिथि:---वर्ष 2008 का पूवार्द्ध)
और
यादवेन्द्र श्री कृष्ण
का रीमिक्स हूँ,
मैं
फ़ीनिक्स हूँ |
(रचना-तिथि:---वर्ष 2008 का पूवार्द्ध)
रविवार, 3 अक्टूबर 2010
नज़्म---" तुम यानी तुम से परे "
तुम-
जिसकी मुस्कुराहट से,
खिली जाती हैं मेरी साँस ;
जिस के तसव्वुर से ,
सँवर-सँवर जाती है,
ज़िन्दगी मेरी |
तुम-
धुंद की गहरी गुफा में,
लिपटी-सहेजी,
छुई-मुई-सी पाकीज़गी;
दौड़ती-भागती नद्दी के,
शोख़ पानी में तैरता,
फूल |
तुम-
जिसके होने के अहसास से,
होता है मुझे,
ख़ुद के होने का अहसास;
तराई में,
चढ़ती शाम के साये में,
बढ़ती,
मासूम-कमसिन उदासी |
ओ परी-रू !
मैंने,
हँसते फूलों पर लिक्खी हैं,
सरगोशियाँ तेरे जिस्म की;
आबशारों की उछालों पर,
लिक्खे हैं बोल तेरी ख़ामुशी के |
तुम-
सुनो---हाँ---तुम;
बहुत मासूम है,
तिरी दोशीज़ ख़ूबसूरती;
बहुत कमसिन है,
तिरे लब की लर्ज़िश |
मिरे तसव्वुर के जंगल में,
तिरी आमद से,
आती है,
ख़यालों की बहार |
तिरे होंठों से,
नुमाया होते हैं,
चाँद रमूज़,
वक़्त-ए-रूबरू |
कितनी मरमरी है,
तिरे लफ़्ज़ों की छुअन,
तिरे होंठ,
करके कोई शरारत,
तान लेते हैं खामुशी,
और,
ये दिल मुज़्तरिब हो कर,
कहीं कुछ ढूँढ़ता रहता है |
तुम-
तुम से परे-
बहुत कुछ हो-
सब कुछ हो-
मिरी ख़ातिर |
(रचना-तिथि:---06-05-1998)
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
" फराज़िन्द-ए-हिन्दोस्तान "
( अज़ीम शख्सियत मरहूम लालबहादुर शास्त्री जी को श्रद्धांजलि )
हिन्दोस्तां को आप-सा,कोई रहनुमा मिले
हादिसों की ज़द में,अब कोई रास्ता मिले
इलाहबाद की गलियों से उठा,हिन्दोस्तां पे छा गया
यूँ लगा इक और सूरज,आसमां पर आ गया
गंगा के पानी-सी सादा,ज़िन्दगी उस की थी यारो
हुक्मरां कैसे जिया करते हैं,ये बतला गया
क़द का था छोटा वो लेकिन,हौंसलों का बादशाह
ख़ुद मुख्तारी के तरीक़े मुल्क को सिखला गया
वफ़ा-शियार-ए-मुल्क था,वो आखिरी दम तक रहा
वतन-परस्ती की शमा,हर दिल में रौशन कर गया
दुश्मनों के हमलों को ललकारा लालबहादुर ने
हिन्दोस्तान पूरा का पूरा,उस के संग बढ़ आया था
पाक के नापाक इरादे मटियामेट उस ने किये
दुश्मनों को दिन में तारे,जांबाज़ वो दिखला गया
सर मगर ऊँचा रहा हिन्दोस्तान का उस के दम
हिन्दोस्तान का वीर वो हंगाम को झुठला गया
जहां-भर की ताक़तों से,दर नहीं सकता ये मुल्क
जोश-ए-तमनाओं का नेजा,इस तरह फहरा गया
मुल्क था आँखें बिछाए,था उसी का इंतज़ार
पर वो शांति-दूत अपने,अगले सफ़र पे चला गया
हर दिल में उट्ठी हूक औ,हर दिल का दामन चक था
लाल बहादुर मुल्क को,अश्कों से नहला गया
आ भी जो मुल्क को,तिरी ज़रुरत पेश है
नासबूर हैं हवाएँ जाने,वक़्त क्या दिखला गया
काश ! वो मिसाले-लाल बहादुर फिर मिले
'कुमार' गूंगी फ़रावां को,कहना जो सिखला गया
(रचना-तिथि:---29-09-1994)
हिन्दोस्तां को आप-सा,कोई रहनुमा मिले
हादिसों की ज़द में,अब कोई रास्ता मिले
इलाहबाद की गलियों से उठा,हिन्दोस्तां पे छा गया
यूँ लगा इक और सूरज,आसमां पर आ गया
गंगा के पानी-सी सादा,ज़िन्दगी उस की थी यारो
हुक्मरां कैसे जिया करते हैं,ये बतला गया
क़द का था छोटा वो लेकिन,हौंसलों का बादशाह
ख़ुद मुख्तारी के तरीक़े मुल्क को सिखला गया
वफ़ा-शियार-ए-मुल्क था,वो आखिरी दम तक रहा
वतन-परस्ती की शमा,हर दिल में रौशन कर गया
दुश्मनों के हमलों को ललकारा लालबहादुर ने
हिन्दोस्तान पूरा का पूरा,उस के संग बढ़ आया था
पाक के नापाक इरादे मटियामेट उस ने किये
दुश्मनों को दिन में तारे,जांबाज़ वो दिखला गया
सर मगर ऊँचा रहा हिन्दोस्तान का उस के दम
हिन्दोस्तान का वीर वो हंगाम को झुठला गया
जहां-भर की ताक़तों से,दर नहीं सकता ये मुल्क
जोश-ए-तमनाओं का नेजा,इस तरह फहरा गया
मुल्क था आँखें बिछाए,था उसी का इंतज़ार
पर वो शांति-दूत अपने,अगले सफ़र पे चला गया
हर दिल में उट्ठी हूक औ,हर दिल का दामन चक था
लाल बहादुर मुल्क को,अश्कों से नहला गया
आ भी जो मुल्क को,तिरी ज़रुरत पेश है
नासबूर हैं हवाएँ जाने,वक़्त क्या दिखला गया
काश ! वो मिसाले-लाल बहादुर फिर मिले
'कुमार' गूंगी फ़रावां को,कहना जो सिखला गया
(रचना-तिथि:---29-09-1994)
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
" मुद्राराक्षस "
मरणासन्न भावनाएँ,
मिटते सम्बन्ध-चिह्न,
लुप्त होती नैतिकता,
सब का हेतु एक-
फैलता अर्थ-आयाम |
जाने,
कब,
किस दिशा में,
मिलेगा लक्ष्य?
संभवतः,
समाज सचमुच,
बन गया है-
मुद्राराक्षस |
(रचानाता-तिथि:---07-06-92)
मिटते सम्बन्ध-चिह्न,
लुप्त होती नैतिकता,
सब का हेतु एक-
फैलता अर्थ-आयाम |
जाने,
कब,
किस दिशा में,
मिलेगा लक्ष्य?
संभवतः,
समाज सचमुच,
बन गया है-
मुद्राराक्षस |
(रचानाता-तिथि:---07-06-92)
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