" कुछ लम्हे जब दिल की दीवारें कुरेच कर अन्दर उतर आते हैं,तो आँखों के ग़र्म पानी और दिल के जज़्बों को लफ़्ज़ों के साथ कर देता हूँ |... लोग कहते हैं कि मैंने ग़ज़लें-नज़्में कही हैं | "
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
ग़ज़ल---"हमनशीं हमनाम है"
तू माहताबे-हुस्न है,दो जहां में तेरा नाम है
तू चाहे तो शायर नामवर,न चाहे तो वो बदनाम है
ज़रा उठा के इक नज़र,देख लो शायर को तुम
उस के लिए तो बस यही,सब से बड़ा ईनाम है
अब की जब वो मिले,कह दी अपने दिल की बात
मेरी शायरी कुछ और नहीं,आप को पैग़ाम है
बे-मय-ओ-मीना ही बहक,जाता है आ के 'कुमार'
कैसा अजब ओ जाने-जां,तिरे मयकदे का निजाम है
जिस का हमें है इंतज़ार,क्या बताएँ हम 'कुमार'
है फ़क़त सूरत जुदा,वो हमनशीं हमनाम है
(रचना-तिथि:---12-09-1991)
सोमवार, 22 नवंबर 2010
ग़ज़ल---"सावन सूना "
(सब से पहले तो क्षमाप्रार्थी हैं इस बात के लिए अपने अखबार 'अंक प्रभा' के श्रीगणेश की गतिविधियों में लगे रहने के कारण यहाँ से लम्बे समय के लिए दूर हो गये थे| अब लौट आये हैं| हाँ,आप से यह जानकारी अवश्य बाँटना चाहते हैं कि घोटेवाले,माँ बगलामुखी और परम पूज्य गुरुदेव देवराहा बाबा की कृपा और आप के आशीर्वाद से 'अंक प्रभा' अंकज्योतिष और बॉडी लैंग्वेज पर आधारित भारत का पहला अख़बार है|)
सावन-सावन आँगन सूना
आँगन-आँगन सावन सूना
कोयल रानी! गुमसुम क्यूँ हो
अब के तेरा गावन सूना
मान की पीर बढ़ा दी जिस ने
मेरा ये मान-भवन सूना
एक मुसाफ़िर हम हैं हमारा
आवन सूना जावन सूना
(रचना-तिथि:---10-08-1997)
सावन-सावन आँगन सूना
आँगन-आँगन सावन सूना
कोयल रानी! गुमसुम क्यूँ हो
अब के तेरा गावन सूना
मान की पीर बढ़ा दी जिस ने
मेरा ये मान-भवन सूना
एक मुसाफ़िर हम हैं हमारा
आवन सूना जावन सूना
(रचना-तिथि:---10-08-1997)
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
" मेरी ताक़त "
मैंने-
खायी हैं,
ठोकरें;
मैंने-
सहा है;
दर्द भी ;
मैंने-
लड़ी है लड़ाई,
वक़्त से भी;
मैंने-
लड़ाया है पंजा,
हालात से;
मैं-
पस्त नहीं हुआ,
मुसीबतों से;
मैं,
गिरा नहीं,
संकटों के आगे;
मैं,
गिड़गिड़ाया नहीं,
हालात के सामने;
डटा रहा,
लड़ता रहा,
जूझता रहा,
मैंने-
हर मुश्किल को,
पटका है-जीता है,
क्योंकि-
मेरी सब से बड़ी ताक़त,
श्रीमद्भगवद्गीता है |
(रचना-तिथि:---11-10-2010)
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
" तलाश एक सत्य की "
सत्य से परे ,
एक सत्य की तलाश,
जीवन की परतों के भीतर,
वर्जित है प्रवेश मेरा,
कहीं,
मैं स्वयं की यात्रा न कर लूँ,
वर्जनाओं के तांडव के बीच,
जारी है तलाश,
सत्य से परे,
एक सत्य की |
(रचना-तिथि:---15-02-1998)
एक सत्य की तलाश,
जीवन की परतों के भीतर,
वर्जित है प्रवेश मेरा,
कहीं,
मैं स्वयं की यात्रा न कर लूँ,
वर्जनाओं के तांडव के बीच,
जारी है तलाश,
सत्य से परे,
एक सत्य की |
(रचना-तिथि:---15-02-1998)
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
ग़ज़ल---" धरती की तरह इजहार करो "
इनकार करो, इक़रार करो
प' आज हमें तुम प्यार करो
जग समझे चाहे कुछ भी हमें
प'तुम हम पे ऐतबार करो
गीतों में सजा कर लाया हूँ
ये भेंट मेरी स्वीकार करो
आँखों में बसा लो नभ की तरा
धरती की तरा इजहार करो
मनमीत बना लो हम को तुम
हम पर इतना उपकार करो
ये 'कुमार' तुम्हारा अपना है
तुम अपनी जुबां से इक़रार करो
(रचना-तिथि:---26-04-1991)
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010
ग़ज़ल---" तनहाइयाँ "
हम को अब तक दे रही है,ज़िन्दगी तनहाइयाँ
हर नफ़स,हर तार में बस,सिर्फ़ हैं तनहाइयाँ
साथ छोड़ दिया है तेरे, ग़म ने भी अब तो
हैं फ़क़त चार सू अब,अपने तो तनहाइयाँ
मुझको मुल्के-ख़्वाब से, ना बुलाओ दोस्तो,
आँखें खोलते वे ही फिर,घेर लेंगी तनहाइयाँ
रात का सन्नाटा हाँ कुछ, गा कर सुनाता है
दूर तक फ़जां में अब तो,हैं बसी तनहाइयाँ
(रचना-तिथि:---28-07-1992)
हर नफ़स,हर तार में बस,सिर्फ़ हैं तनहाइयाँ
साथ छोड़ दिया है तेरे, ग़म ने भी अब तो
हैं फ़क़त चार सू अब,अपने तो तनहाइयाँ
मुझको मुल्के-ख़्वाब से, ना बुलाओ दोस्तो,
आँखें खोलते वे ही फिर,घेर लेंगी तनहाइयाँ
रात का सन्नाटा हाँ कुछ, गा कर सुनाता है
दूर तक फ़जां में अब तो,हैं बसी तनहाइयाँ
(रचना-तिथि:---28-07-1992)
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
नज़्म---" फ़ीनिक्स "
राघवेन्द्र श्री राम
और
यादवेन्द्र श्री कृष्ण
का रीमिक्स हूँ,
मैं
फ़ीनिक्स हूँ |
(रचना-तिथि:---वर्ष 2008 का पूवार्द्ध)
और
यादवेन्द्र श्री कृष्ण
का रीमिक्स हूँ,
मैं
फ़ीनिक्स हूँ |
(रचना-तिथि:---वर्ष 2008 का पूवार्द्ध)
रविवार, 3 अक्टूबर 2010
नज़्म---" तुम यानी तुम से परे "
तुम-
जिसकी मुस्कुराहट से,
खिली जाती हैं मेरी साँस ;
जिस के तसव्वुर से ,
सँवर-सँवर जाती है,
ज़िन्दगी मेरी |
तुम-
धुंद की गहरी गुफा में,
लिपटी-सहेजी,
छुई-मुई-सी पाकीज़गी;
दौड़ती-भागती नद्दी के,
शोख़ पानी में तैरता,
फूल |
तुम-
जिसके होने के अहसास से,
होता है मुझे,
ख़ुद के होने का अहसास;
तराई में,
चढ़ती शाम के साये में,
बढ़ती,
मासूम-कमसिन उदासी |
ओ परी-रू !
मैंने,
हँसते फूलों पर लिक्खी हैं,
सरगोशियाँ तेरे जिस्म की;
आबशारों की उछालों पर,
लिक्खे हैं बोल तेरी ख़ामुशी के |
तुम-
सुनो---हाँ---तुम;
बहुत मासूम है,
तिरी दोशीज़ ख़ूबसूरती;
बहुत कमसिन है,
तिरे लब की लर्ज़िश |
मिरे तसव्वुर के जंगल में,
तिरी आमद से,
आती है,
ख़यालों की बहार |
तिरे होंठों से,
नुमाया होते हैं,
चाँद रमूज़,
वक़्त-ए-रूबरू |
कितनी मरमरी है,
तिरे लफ़्ज़ों की छुअन,
तिरे होंठ,
करके कोई शरारत,
तान लेते हैं खामुशी,
और,
ये दिल मुज़्तरिब हो कर,
कहीं कुछ ढूँढ़ता रहता है |
तुम-
तुम से परे-
बहुत कुछ हो-
सब कुछ हो-
मिरी ख़ातिर |
(रचना-तिथि:---06-05-1998)
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
" फराज़िन्द-ए-हिन्दोस्तान "
( अज़ीम शख्सियत मरहूम लालबहादुर शास्त्री जी को श्रद्धांजलि )
हिन्दोस्तां को आप-सा,कोई रहनुमा मिले
हादिसों की ज़द में,अब कोई रास्ता मिले
इलाहबाद की गलियों से उठा,हिन्दोस्तां पे छा गया
यूँ लगा इक और सूरज,आसमां पर आ गया
गंगा के पानी-सी सादा,ज़िन्दगी उस की थी यारो
हुक्मरां कैसे जिया करते हैं,ये बतला गया
क़द का था छोटा वो लेकिन,हौंसलों का बादशाह
ख़ुद मुख्तारी के तरीक़े मुल्क को सिखला गया
वफ़ा-शियार-ए-मुल्क था,वो आखिरी दम तक रहा
वतन-परस्ती की शमा,हर दिल में रौशन कर गया
दुश्मनों के हमलों को ललकारा लालबहादुर ने
हिन्दोस्तान पूरा का पूरा,उस के संग बढ़ आया था
पाक के नापाक इरादे मटियामेट उस ने किये
दुश्मनों को दिन में तारे,जांबाज़ वो दिखला गया
सर मगर ऊँचा रहा हिन्दोस्तान का उस के दम
हिन्दोस्तान का वीर वो हंगाम को झुठला गया
जहां-भर की ताक़तों से,दर नहीं सकता ये मुल्क
जोश-ए-तमनाओं का नेजा,इस तरह फहरा गया
मुल्क था आँखें बिछाए,था उसी का इंतज़ार
पर वो शांति-दूत अपने,अगले सफ़र पे चला गया
हर दिल में उट्ठी हूक औ,हर दिल का दामन चक था
लाल बहादुर मुल्क को,अश्कों से नहला गया
आ भी जो मुल्क को,तिरी ज़रुरत पेश है
नासबूर हैं हवाएँ जाने,वक़्त क्या दिखला गया
काश ! वो मिसाले-लाल बहादुर फिर मिले
'कुमार' गूंगी फ़रावां को,कहना जो सिखला गया
(रचना-तिथि:---29-09-1994)
हिन्दोस्तां को आप-सा,कोई रहनुमा मिले
हादिसों की ज़द में,अब कोई रास्ता मिले
इलाहबाद की गलियों से उठा,हिन्दोस्तां पे छा गया
यूँ लगा इक और सूरज,आसमां पर आ गया
गंगा के पानी-सी सादा,ज़िन्दगी उस की थी यारो
हुक्मरां कैसे जिया करते हैं,ये बतला गया
क़द का था छोटा वो लेकिन,हौंसलों का बादशाह
ख़ुद मुख्तारी के तरीक़े मुल्क को सिखला गया
वफ़ा-शियार-ए-मुल्क था,वो आखिरी दम तक रहा
वतन-परस्ती की शमा,हर दिल में रौशन कर गया
दुश्मनों के हमलों को ललकारा लालबहादुर ने
हिन्दोस्तान पूरा का पूरा,उस के संग बढ़ आया था
पाक के नापाक इरादे मटियामेट उस ने किये
दुश्मनों को दिन में तारे,जांबाज़ वो दिखला गया
सर मगर ऊँचा रहा हिन्दोस्तान का उस के दम
हिन्दोस्तान का वीर वो हंगाम को झुठला गया
जहां-भर की ताक़तों से,दर नहीं सकता ये मुल्क
जोश-ए-तमनाओं का नेजा,इस तरह फहरा गया
मुल्क था आँखें बिछाए,था उसी का इंतज़ार
पर वो शांति-दूत अपने,अगले सफ़र पे चला गया
हर दिल में उट्ठी हूक औ,हर दिल का दामन चक था
लाल बहादुर मुल्क को,अश्कों से नहला गया
आ भी जो मुल्क को,तिरी ज़रुरत पेश है
नासबूर हैं हवाएँ जाने,वक़्त क्या दिखला गया
काश ! वो मिसाले-लाल बहादुर फिर मिले
'कुमार' गूंगी फ़रावां को,कहना जो सिखला गया
(रचना-तिथि:---29-09-1994)
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
" मुद्राराक्षस "
मरणासन्न भावनाएँ,
मिटते सम्बन्ध-चिह्न,
लुप्त होती नैतिकता,
सब का हेतु एक-
फैलता अर्थ-आयाम |
जाने,
कब,
किस दिशा में,
मिलेगा लक्ष्य?
संभवतः,
समाज सचमुच,
बन गया है-
मुद्राराक्षस |
(रचानाता-तिथि:---07-06-92)
मिटते सम्बन्ध-चिह्न,
लुप्त होती नैतिकता,
सब का हेतु एक-
फैलता अर्थ-आयाम |
जाने,
कब,
किस दिशा में,
मिलेगा लक्ष्य?
संभवतः,
समाज सचमुच,
बन गया है-
मुद्राराक्षस |
(रचानाता-तिथि:---07-06-92)
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
" मंदिर वहीँ बनाएँगे "
(राममंदिर के लिए अयोध्या में ०६ दिसंबर,१९९२ को शहीद हुए प्रातःस्मरणीय व्यक्तित्वों को प्रणाम-स्वरुप)
जहाँ शहीद हुए 'कोठारी बन्धु'*,वहाँ जां की बाज़ी लगाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
अब तो इन तूफानों को हम,दिल्ली तक ले जाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
हमें किसी से बैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
अपने लिए कोई ग़ैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
चुप रहने के दिन बीते,चुप रहने का अब समय नहीं
इन गद्दारों से कह दो,अब ये कुछ भी करें नहीं
अब अंगारे ही उछलेंगे,अब तो ज्वाला ही भड़केगी
जो है सच्चा रामभक्त,उस की तो भुजाएँ फड़केंगी
हम जन्मभूमि के दीवाने हैं,इस के लिए लुट जाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
फिर से रामलला होंगे वां ,हम ने ये इक़रार किया
तुम न समझोगे गद्दारो ! तुम ने कब राम से प्यार किया
किया खून का तिलक उन्होंने,जन्मभूमि के भाल पर
है जन्मभूमि भी गर्वित अपने, उस रणबाँकुरे लाल पर
तुम हनुमान हो हिन्दुओ ! ये लंका आज जला डालो
भारत की रामायण से,रावण का नाम मिटा डालो
अब ये शिवाजी-राणा प्रताप,आंधी बन के छाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
वो लोग हमें क्या समझेंगे,जिन्हें भारत से प्यार नहीं
हमें चाहिए गर्वित हिन्दू,कुत्तों की दरकार नहीं
अब देखेगा ये संसार कि,हिन्दू भला क्या होता है
इस को देखे जो आँखें उठा कर,वो आँखों को खोता है
हम तो प्यारे लाल क़िले पर,केसरिया लहराएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
जो इस धरती का खाते हैं,औरों के गुण गाते हैं
जो इस के टुकड़े करने को,औरों से धन भी पते हैं
वे कान खोल के सुन लें,उन के परखच्चे उड़ा देंगे
सर्वनाश कर देंगे उन का,हम उन क नाम मिटा देंगे
भारत को जो शूल भी चुभी,हम उन को शूली चढ़ा देंगे
अपने हाथों को काट के हम ने,उन को आश्रयदान दिया
वे हम को आँख दिखाते हैं,हम को ये प्रतिदान दिया
बात-बात पर पकिस्तान का नारा लगाने वालो ! सुनो
या तो राम का धाम चुनो,या बाबर की ज़ात चुनो
बांग्लादेश औ'पाक को फिर से,भारत का अंग बनाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
*'कोठारी बन्धु':---बीकानेर (राजस्थान) के दो भाइयों-राम और शरद कोठारी ने ०६ दिसंबर,१९९३ रामजन्मभूमि के माथे का कलंक मिटने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी
(रचना-तिथि:---06-11-1993)
राम,मंदिर,दिल्ली,गद्दारों,जन्मभूमि,हनुमान,हिन्दू,भारत
जहाँ शहीद हुए 'कोठारी बन्धु'*,वहाँ जां की बाज़ी लगाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
अब तो इन तूफानों को हम,दिल्ली तक ले जाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
हमें किसी से बैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
अपने लिए कोई ग़ैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
चुप रहने के दिन बीते,चुप रहने का अब समय नहीं
इन गद्दारों से कह दो,अब ये कुछ भी करें नहीं
अब अंगारे ही उछलेंगे,अब तो ज्वाला ही भड़केगी
जो है सच्चा रामभक्त,उस की तो भुजाएँ फड़केंगी
हम जन्मभूमि के दीवाने हैं,इस के लिए लुट जाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
फिर से रामलला होंगे वां ,हम ने ये इक़रार किया
तुम न समझोगे गद्दारो ! तुम ने कब राम से प्यार किया
किया खून का तिलक उन्होंने,जन्मभूमि के भाल पर
है जन्मभूमि भी गर्वित अपने, उस रणबाँकुरे लाल पर
तुम हनुमान हो हिन्दुओ ! ये लंका आज जला डालो
भारत की रामायण से,रावण का नाम मिटा डालो
अब ये शिवाजी-राणा प्रताप,आंधी बन के छाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
वो लोग हमें क्या समझेंगे,जिन्हें भारत से प्यार नहीं
हमें चाहिए गर्वित हिन्दू,कुत्तों की दरकार नहीं
अब देखेगा ये संसार कि,हिन्दू भला क्या होता है
इस को देखे जो आँखें उठा कर,वो आँखों को खोता है
हम तो प्यारे लाल क़िले पर,केसरिया लहराएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
जो इस धरती का खाते हैं,औरों के गुण गाते हैं
जो इस के टुकड़े करने को,औरों से धन भी पते हैं
वे कान खोल के सुन लें,उन के परखच्चे उड़ा देंगे
सर्वनाश कर देंगे उन का,हम उन क नाम मिटा देंगे
भारत को जो शूल भी चुभी,हम उन को शूली चढ़ा देंगे
अपने हाथों को काट के हम ने,उन को आश्रयदान दिया
वे हम को आँख दिखाते हैं,हम को ये प्रतिदान दिया
बात-बात पर पकिस्तान का नारा लगाने वालो ! सुनो
या तो राम का धाम चुनो,या बाबर की ज़ात चुनो
बांग्लादेश औ'पाक को फिर से,भारत का अंग बनाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
*'कोठारी बन्धु':---बीकानेर (राजस्थान) के दो भाइयों-राम और शरद कोठारी ने ०६ दिसंबर,१९९३ रामजन्मभूमि के माथे का कलंक मिटने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी
(रचना-तिथि:---06-11-1993)
राम,मंदिर,दिल्ली,गद्दारों,जन्मभूमि,हनुमान,हिन्दू,भारत
ग़ज़ल---" आशिक़ों को जगह दीजिए "
सारे परदे उठा दीजिए
हुस्न का मज़ा लीजिए
आप का नूर आया है जो
ये चराग़ बुझा दीजिए
दिल हमारे बहल जाएँगे
आप ज़रा मुस्करा दीजिए
और लोग हो जाएँ पीछे
आशिक़ों को जगह दीजिए
आप का हाले-दिल जान लेंगे
अपने दिल में जगह दीजिए
ये नज़ारे मचल जाएँगे
इक नज़र तो चला दीजिए
हम ने कर ली मुहब्बत 'कुमार'
अब चाहे जो सज़ा दीजिए
(रचना-तिथि:---23-03-1992)
हुस्न का मज़ा लीजिए
आप का नूर आया है जो
ये चराग़ बुझा दीजिए
दिल हमारे बहल जाएँगे
आप ज़रा मुस्करा दीजिए
और लोग हो जाएँ पीछे
आशिक़ों को जगह दीजिए
आप का हाले-दिल जान लेंगे
अपने दिल में जगह दीजिए
ये नज़ारे मचल जाएँगे
इक नज़र तो चला दीजिए
हम ने कर ली मुहब्बत 'कुमार'
अब चाहे जो सज़ा दीजिए
(रचना-तिथि:---23-03-1992)
बुधवार, 29 सितंबर 2010
" मंदिर वहीँ बनाएँगे "
(राममंदिर के लिए अयोध्या में ०६ दिसंबर,१९९२ को शहीद हुए प्रातःस्मरणीय व्यक्तित्वों को प्रणाम-स्वरुप)
जहाँ शहीद हुए 'कोठारी बन्धु'*,वहाँ जां की बाज़ी लगाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
अब तो इन तूफानों को हम,दिल्ली तक ले जाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
हमें किसी से बैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
अपने लिए कोई ग़ैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
चुप रहने के दिन बीते,चुप रहने का अब समय नहीं
इन गद्दारों से कह दो,अब ये कुछ भी करें नहीं
अब अंगारे ही उछलेंगे,अब तो ज्वाला ही भड़केगी
जो है सच्चा रामभक्त,उस की तो भुजाएँ फड़केंगी
हम जन्मभूमि के दीवाने हैं,इस के लिए लुट जाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
फिर से रामलला होंगे वां ,हम ने ये इक़रार किया
तुम न समझोगे गद्दारो ! तुम ने कब राम से प्यार किया
किया खून का तिलक उन्होंने,जन्मभूमि के भाल पर
है जन्मभूमि भी गर्वित अपने, उस रणबाँकुरे लाल पर
तुम हनुमान हो हिन्दुओ ! ये लंका आज जला डालो
भारत की रामायण से,रावण का नाम मिटा डालो
अब ये शिवाजी-राणा प्रताप,आंधी बन के छाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
वो लोग हमें क्या समझेंगे,जिन्हें भारत से प्यार नहीं
हमें चाहिए गर्वित हिन्दू,कुत्तों की दरकार नहीं
अब देखेगा ये संसार कि,हिन्दू भला क्या होता है
इस को देखे जो आँखें उठा कर,वो आँखों को खोता है
हम तो प्यारे लाल क़िले पर,केसरिया लहराएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
जो इस धरती का खाते हैं,औरों के गुण गाते हैं
जो इस के टुकड़े करने को,औरों से धन भी पते हैं
वे कान खोल के सुन लें,उन के परखच्चे उड़ा देंगे
सर्वनाश कर देंगे उन का,हम उन क नाम मिटा देंगे
भारत को जो शूल भी चुभी,हम उन को शूली चढ़ा देंगे
अपने हाथों को काट के हम ने,उन को आश्रयदान दिया
वे हम को आँख दिखाते हैं,हम को ये प्रतिदान दिया
बात-बात पर पकिस्तान का नारा लगाने वालो ! सुनो
या तो राम का धाम चुनो,या बाबर की ज़ात चुनो
बांग्लादेश औ'पाक को फिर से,भारत का अंग बनाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
*'कोठारी बन्धु':---बीकानेर (राजस्थान) के दो भाइयों-राम और शरद कोठारी ने ०६ दिसंबर,१९९३ रामजन्मभूमि के माथे का कलंक मिटाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी
(रचना-तिथि:---06-11-1993)
जहाँ शहीद हुए 'कोठारी बन्धु'*,वहाँ जां की बाज़ी लगाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
अब तो इन तूफानों को हम,दिल्ली तक ले जाएँगे
जहाँ राम ने जन्म लिया है,मंदिर वहीँ बनाएँगे ...
हमें किसी से बैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
अपने लिए कोई ग़ैर नहीं पर,गद्दारों की ख़ैर नहीं
चुप रहने के दिन बीते,चुप रहने का अब समय नहीं
इन गद्दारों से कह दो,अब ये कुछ भी करें नहीं
अब अंगारे ही उछलेंगे,अब तो ज्वाला ही भड़केगी
जो है सच्चा रामभक्त,उस की तो भुजाएँ फड़केंगी
हम जन्मभूमि के दीवाने हैं,इस के लिए लुट जाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
फिर से रामलला होंगे वां ,हम ने ये इक़रार किया
तुम न समझोगे गद्दारो ! तुम ने कब राम से प्यार किया
किया खून का तिलक उन्होंने,जन्मभूमि के भाल पर
है जन्मभूमि भी गर्वित अपने, उस रणबाँकुरे लाल पर
तुम हनुमान हो हिन्दुओ ! ये लंका आज जला डालो
भारत की रामायण से,रावण का नाम मिटा डालो
अब ये शिवाजी-राणा प्रताप,आंधी बन के छाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
वो लोग हमें क्या समझेंगे,जिन्हें भारत से प्यार नहीं
हमें चाहिए गर्वित हिन्दू,कुत्तों की दरकार नहीं
अब देखेगा ये संसार कि,हिन्दू भला क्या होता है
इस को देखे जो आँखें उठा कर,वो आँखों को खोता है
हम तो प्यारे लाल क़िले पर,केसरिया लहराएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
जो इस धरती का खाते हैं,औरों के गुण गाते हैं
जो इस के टुकड़े करने को,औरों से धन भी पते हैं
वे कान खोल के सुन लें,उन के परखच्चे उड़ा देंगे
सर्वनाश कर देंगे उन का,हम उन क नाम मिटा देंगे
भारत को जो शूल भी चुभी,हम उन को शूली चढ़ा देंगे
अपने हाथों को काट के हम ने,उन को आश्रयदान दिया
वे हम को आँख दिखाते हैं,हम को ये प्रतिदान दिया
बात-बात पर पकिस्तान का नारा लगाने वालो ! सुनो
या तो राम का धाम चुनो,या बाबर की ज़ात चुनो
बांग्लादेश औ'पाक को फिर से,भारत का अंग बनाएँगे
... जहाँ राम ने जन्म लिया,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे
*'कोठारी बन्धु':---बीकानेर (राजस्थान) के दो भाइयों-राम और शरद कोठारी ने ०६ दिसंबर,१९९३ रामजन्मभूमि के माथे का कलंक मिटाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी
(रचना-तिथि:---06-11-1993)
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
ग़ज़ल---" मन का रिक्त शिवाला है "
मैंने दर्द को पाला है
हर घाव मिरा निवाला है
जब से किसी की मूरत रूठी
मन का रिक्त शिवाला है
तेरा नाम लिखा जिस पे
वो पन्ना आज निकाला है
समय का पतझर ले डूबा
अब बाग़ कहाँ हरियाला है
कभी बना था रेत का दरिया
'कुमार' आज हिमशाला है
(रचना-तिथि:---28-11-1997)
हर घाव मिरा निवाला है
जब से किसी की मूरत रूठी
मन का रिक्त शिवाला है
तेरा नाम लिखा जिस पे
वो पन्ना आज निकाला है
समय का पतझर ले डूबा
अब बाग़ कहाँ हरियाला है
कभी बना था रेत का दरिया
'कुमार' आज हिमशाला है
(रचना-तिथि:---28-11-1997)
सोमवार, 27 सितंबर 2010
नज़्म:---" अनदेखे,अनजाने देश "
हँसते होंठों के बीच,
और,
मुस्कुराती पलकों में,
अनदेखे,अनजाने,
कई देश बसते हैं
मगर,
इन देशों तक पहुँचने के लिए,
पहले,
गुज़रना पड़ता है,
रोते हुए कलेजों की,
पगडंडियों से |
(रचना-तिथि:---28-06-1995)
और,
मुस्कुराती पलकों में,
अनदेखे,अनजाने,
कई देश बसते हैं
मगर,
इन देशों तक पहुँचने के लिए,
पहले,
गुज़रना पड़ता है,
रोते हुए कलेजों की,
पगडंडियों से |
(रचना-तिथि:---28-06-1995)
रविवार, 26 सितंबर 2010
ग़ज़ल---" कर के क्यूँ बंद किवाड़े रहता है ? "
औरों के घर-आँगन में, जो आँखें फाड़े
वो ही शख्स भला,करके-क्यूँ बंद किवाड़े रहता है ?
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
गुरबत की क़ुर्बत के ही हैं, यार तमाशे ये सारे
वरना सोचो-कौन शौक़ से,बदन उघाड़े रहता है ?
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
उसका हँसना,उस का रोना,मुझ से जुदा हुए हैं यूँ
वो जो मेरे घर-आँगन के,इस पसवाड़े* रहता है
(*पसवाड़े-पहलू )
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
ढूँढा तुमने कहाँ था उसको,और भला वो मिलता कैसे ?
प्यार तो भैया तेरी नफ़रत,के पिछवाड़े रहता है
(रचना-तिथि:---11-09-1998)
सरगोशी करती हैं यादें,हूक यहाँ भी उठती है
तेरे वहाँ ये मौसम तो,बस जाड़े-जाड़े रहता है
(रचना-तिथि:---11-09-1998)
वो ही शख्स भला,करके-क्यूँ बंद किवाड़े रहता है ?
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
गुरबत की क़ुर्बत के ही हैं, यार तमाशे ये सारे
वरना सोचो-कौन शौक़ से,बदन उघाड़े रहता है ?
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
उसका हँसना,उस का रोना,मुझ से जुदा हुए हैं यूँ
वो जो मेरे घर-आँगन के,इस पसवाड़े* रहता है
(*पसवाड़े-पहलू )
(रचना-तिथि:---28-08-1998)
ढूँढा तुमने कहाँ था उसको,और भला वो मिलता कैसे ?
प्यार तो भैया तेरी नफ़रत,के पिछवाड़े रहता है
(रचना-तिथि:---11-09-1998)
सरगोशी करती हैं यादें,हूक यहाँ भी उठती है
तेरे वहाँ ये मौसम तो,बस जाड़े-जाड़े रहता है
(रचना-तिथि:---11-09-1998)
शनिवार, 25 सितंबर 2010
ग़ज़ल---" एक मुकम्मल दर्द हैं यादें "
आँसू आँख का गहना है
इस को आँख में रहना है
जीस्त दर्द का अफ़साना है
इस को सब को कहना है
एक मुकम्मल दर्द हैं यादें
जिस को सब को सहना है
रेत का एक क़िला है आशा
इस को इक दिन ढहना है
ये है शहर दर्द का जिसमें
तुझ को 'कुमार' रहना है
(रचना-तिथि:---30-08-1994)
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
नज़्म---" कसक "
ज़िन्दगी में,
दश्त-दर-दश्त,
हम ने ढूँढा उसे,
जो,
मिल कर बिछड़ता रहा |
हम मुश्ताक थे,
के ज़िन्दगी लहलहाए,
हवा का मीठा अंदाज़ आए,
इन पुरनम आँखों के दाग़ धुलें,
मगर,
बियाबाने-ज़िन्दगी में,
वक़्त के खूंखार भेड़िये ने,
हमें मंजिल से दूर रखा |
हम,
सहरा में नहीं थे,
प' हम चश्मे से बहुत दूर थे,
जैसे,
पहाड़ पर से गंगा निकले,
पर पहाड़ प्यासा ही रह जाए,
सिर्फ रास्ता बना रहे |
हमें सभी,
रास्ता बना कर आगे बढे,
और,
गयी नद्दी की तारा फिर नहीं लौटे,
कभी नहीं लौटे |
(रचना-तिथि:---24-12-1993 )
दश्त-दर-दश्त,
हम ने ढूँढा उसे,
जो,
मिल कर बिछड़ता रहा |
हम मुश्ताक थे,
के ज़िन्दगी लहलहाए,
हवा का मीठा अंदाज़ आए,
इन पुरनम आँखों के दाग़ धुलें,
मगर,
बियाबाने-ज़िन्दगी में,
वक़्त के खूंखार भेड़िये ने,
हमें मंजिल से दूर रखा |
हम,
सहरा में नहीं थे,
प' हम चश्मे से बहुत दूर थे,
जैसे,
पहाड़ पर से गंगा निकले,
पर पहाड़ प्यासा ही रह जाए,
सिर्फ रास्ता बना रहे |
हमें सभी,
रास्ता बना कर आगे बढे,
और,
गयी नद्दी की तारा फिर नहीं लौटे,
कभी नहीं लौटे |
(रचना-तिथि:---24-12-1993 )
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
ग़ज़ल:--- " हमराह मिरा कहाँ रहा ? "
हर शजर तिरी याद का,धू-धू कर के जल रहा,
बेबसों की जमात में, मेरा दिल अव्वल रहा
हर नफ़स में है घुटन,औ' हर तसव्वुर ख़ाक है,
शहरे-दिल में अब के तो,मौत-सा मातम रहा
चल रहे थे हम मुसलसल,वक़्त की रफ़्तार से,
क्या पता इस राह में,हमराह मिरा कहाँ रहा ?
वहीँ पे अपने दिल की, ख़्वाहिशें बेकार हैं,
जिस जगह पे तेरे दिल का,ना कोई रस्ता रहा
अपनी हालत खुद बयां,करना हमें आता नहीं,
जिसे जो कुछ देखना हो,देख ले मैं कां रहा ?
एक उस के नाम से ही,'कुमार' वाबस्ता न रह,
क्या करेगा तब अगर जब,वो भी बेवफ़ा रहा
(रचना-तिथि:---18-04-1993 )
बेबसों की जमात में, मेरा दिल अव्वल रहा
हर नफ़स में है घुटन,औ' हर तसव्वुर ख़ाक है,
शहरे-दिल में अब के तो,मौत-सा मातम रहा
चल रहे थे हम मुसलसल,वक़्त की रफ़्तार से,
क्या पता इस राह में,हमराह मिरा कहाँ रहा ?
वहीँ पे अपने दिल की, ख़्वाहिशें बेकार हैं,
जिस जगह पे तेरे दिल का,ना कोई रस्ता रहा
अपनी हालत खुद बयां,करना हमें आता नहीं,
जिसे जो कुछ देखना हो,देख ले मैं कां रहा ?
एक उस के नाम से ही,'कुमार' वाबस्ता न रह,
क्या करेगा तब अगर जब,वो भी बेवफ़ा रहा
(रचना-तिथि:---18-04-1993 )
बुधवार, 22 सितंबर 2010
ग़ज़ल::: " रहे हौसलामंद 'कुमार' ... "
क्या तो कहेंगे अपने क़िस्से;गो कि हम नाशाद रहे,
अपने-बिराने, इस के-उस के; बंधन से आज़ाद रहे
रिमझिम-रिमझिम बूँदों में;थोड़ा तो ग़म घुल जाए,
कुछ तो रोएँ, आँख भिगोएँ; ये बरसात भी याद रहे
वक़्त के साथ सभी तो बदले;अपनों ने भी ठुकराया,
इक बस दर्द ही साथ रहा; नाशाद रहे, या शाद रहे
ठंडी हवा के झौंकों में; जलन है तेरी यादों की,
जब-जब बरसीं बरसातें; बैचेन रहे, बेदाद रहे
गुज़रा जब भी हमपे कोई ; लम्हा तेरी यादों का,
दिल में गहरी हूक उठी; ग़म के घर आबाद रहे
तेरा ही तो अक्स छुपा है;मेरी ग़ज़लों के शे'रों में,
तेरे ही तो दम पे कहीं; हम जो रहे, इरशाद रहे
ग़म की घटाएँ,दर्द के बादल,यादों की तूफ़ानी हवाएँ,
रहे हौसलामंद 'कुमार'; हाँ, अब के ये ईजाद रहे
(रचना-तिथि:---15-06-1993)
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
नज़्म---" मेरा अपना आप "
तेरे तमाम तसव्वुरात के सायो को ओढ़े,
मेरी सुनहरी तमन्नाएँ,
कड़ी हैं ज़िन्दगी के बियाबां में |
हर सू तेज़ है नाउम्मीदी की धूप,
वीरानिओं के परबत हैं,
पत्थरों पे रेंगते,
लफ़्ज़ों के लिबास ओढ़े,
मिरे जज्बे,
छिल गए हिन् इन कछुओं के पाँव;
लहू तो खैर अब,
रहा ही नहीं |
तिरे बग़ैर नातमाम है,
ये जिंदगी,
क्यूं के,
तू मेरा अपना आप है |
(रचना-तिथि:---28-06-1995)
मेरी सुनहरी तमन्नाएँ,
कड़ी हैं ज़िन्दगी के बियाबां में |
हर सू तेज़ है नाउम्मीदी की धूप,
वीरानिओं के परबत हैं,
पत्थरों पे रेंगते,
लफ़्ज़ों के लिबास ओढ़े,
मिरे जज्बे,
छिल गए हिन् इन कछुओं के पाँव;
लहू तो खैर अब,
रहा ही नहीं |
तिरे बग़ैर नातमाम है,
ये जिंदगी,
क्यूं के,
तू मेरा अपना आप है |
(रचना-तिथि:---28-06-1995)
सोमवार, 20 सितंबर 2010
ग़ज़ल---" आँख का मर गया पानी "
(यह रचना साप्ताहिक फ़िल्मी अख़बार 'एक्सप्रेस स्क्रीन,मुंबई' में 24-12-1994 को प्रकशित हो चुकी है | )
जब भी हद से गुज़र गया पानी
समझो,आँख का मर गया पानी
हम को डुबोने ही आया था तूफां
हम को डुबो के उतर गया पानी
भटका है परबत-नदिया-दरिया
तब फिर अपने घर गया पानी
राहें अपनी खुद ही बनायीं
गाता-मचलता जिधर गया पानी
ग़म ने 'कुमार' का दिल सोखा है
ख़ुशियों का जाने किधर गया पानी
जब भी हद से गुज़र गया पानी
समझो,आँख का मर गया पानी
हम को डुबोने ही आया था तूफां
हम को डुबो के उतर गया पानी
भटका है परबत-नदिया-दरिया
तब फिर अपने घर गया पानी
राहें अपनी खुद ही बनायीं
गाता-मचलता जिधर गया पानी
ग़म ने 'कुमार' का दिल सोखा है
ख़ुशियों का जाने किधर गया पानी
रविवार, 19 सितंबर 2010
नज़्म---" कुछ पत्ते और तुम "
जो तन्हा हैं,
पूरी तरह ख़ामोश हैं,
गुमसुम हैं,
मिरे आस-पास;
मैं जिन्हें नहीं दे सकता,
झूठा दिलासा भी;
ये ही कुछ पत्ते,
लम्हे हैं,
तिरे साथ के |
(रचना-तिथि:---22-08-1998)
पूरी तरह ख़ामोश हैं,
गुमसुम हैं,
मिरे आस-पास;
मैं जिन्हें नहीं दे सकता,
झूठा दिलासा भी;
ये ही कुछ पत्ते,
लम्हे हैं,
तिरे साथ के |
(रचना-तिथि:---22-08-1998)
शनिवार, 18 सितंबर 2010
नज़्म---" लम्हात की परछाइयाँ "
हज़ारों सिलसिलों के आगे
हज़ारों-हज़ार मंज़िलों के पार
चलेगा
वक़्त का कारवां |
फ़ना हो जाएँगी सारी तस्वीरें
धुन्दले हो जाएँगे तमाम नक्श |
मगर---
होंगे हम रू-ब-रू
खल्वतों के जब
याद रहेंगे ये लम्हे
के जब---
ज़िंदगियाँ लहलहायी हैं;
के जब---
लम्हात खिले हैं |
हाँ,ये पुरकशिश मौहब्ब्तें
खींच लाएँगी हमें
तब---फिर इन्हीं लम्हात में |
सरगोशियाँ करेंगी यादें
इन्हीं लम्हात की
परछाइयों में |
(रचना-तिथि:---21-08-1999)
हज़ारों-हज़ार मंज़िलों के पार
चलेगा
वक़्त का कारवां |
फ़ना हो जाएँगी सारी तस्वीरें
धुन्दले हो जाएँगे तमाम नक्श |
मगर---
होंगे हम रू-ब-रू
खल्वतों के जब
याद रहेंगे ये लम्हे
के जब---
ज़िंदगियाँ लहलहायी हैं;
के जब---
लम्हात खिले हैं |
हाँ,ये पुरकशिश मौहब्ब्तें
खींच लाएँगी हमें
तब---फिर इन्हीं लम्हात में |
सरगोशियाँ करेंगी यादें
इन्हीं लम्हात की
परछाइयों में |
(रचना-तिथि:---21-08-1999)
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
" हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद "
(कारगिल के शहीदों को प्रणाम)
सुनो !
वे चले गये पहाड़ों पर,
के हम,
रह सकें बेखौफ़,
मैदानों में |
दफ़न हो गये कुछ सपने,
बर्फ में,
के ज़िन्दा रह सकें,
हमारे सपने |
उन्होंने झेल लीं,
गोलियाँ सीने पर अपने
के हम कर सकें,
विजय-तिलक,
माँ के माथे पर |
खामोश हो गयीं,
कुछ आवाज़ें,
के ज़िंदा रह सकें,
हमारी आवाज़ें |
वे दे गये,
कई आँखों को आँसू,
के न बाहें कभी,
हमारी आँखों से आँसू |
आओ !
उन के बलिदानों को रक्खें कामयाब,
सर झुकाएँ,
उन के खून के आगे,
मिलाएँ---
एक सुर में आवाज़,
और कहें---
" हिन्दुस्तान जिंदाबाद | "
(रचना-तिथि:---10-07-1999)
सुनो !
वे चले गये पहाड़ों पर,
के हम,
रह सकें बेखौफ़,
मैदानों में |
दफ़न हो गये कुछ सपने,
बर्फ में,
के ज़िन्दा रह सकें,
हमारे सपने |
उन्होंने झेल लीं,
गोलियाँ सीने पर अपने
के हम कर सकें,
विजय-तिलक,
माँ के माथे पर |
खामोश हो गयीं,
कुछ आवाज़ें,
के ज़िंदा रह सकें,
हमारी आवाज़ें |
वे दे गये,
कई आँखों को आँसू,
के न बाहें कभी,
हमारी आँखों से आँसू |
आओ !
उन के बलिदानों को रक्खें कामयाब,
सर झुकाएँ,
उन के खून के आगे,
मिलाएँ---
एक सुर में आवाज़,
और कहें---
" हिन्दुस्तान जिंदाबाद | "
(रचना-तिथि:---10-07-1999)
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
ग़ज़ल:--- " इस में भी कोई बात है "
ख़्याल ही की बात है
तेरा मेरा साथ है
यां पहले भी रात थी
यां अब भी रात है
ये बिखरी-बिखरी ज़िन्दगी
जाने किस की सौग़ात है
तुझ को भूल जाएँ हम
ये भी कोई बात है ?
ग़म का झुरमट छाया है
अश्क़ों की बरसात है
पहले भी में तन्हा था
अब भी कौन साथ है
आज चुप-चुप है 'कुमार'
इस में भी कोई बात है
(रचना-तिथि:---05-06-1993 )
तेरा मेरा साथ है
यां पहले भी रात थी
यां अब भी रात है
ये बिखरी-बिखरी ज़िन्दगी
जाने किस की सौग़ात है
तुझ को भूल जाएँ हम
ये भी कोई बात है ?
ग़म का झुरमट छाया है
अश्क़ों की बरसात है
पहले भी में तन्हा था
अब भी कौन साथ है
आज चुप-चुप है 'कुमार'
इस में भी कोई बात है
(रचना-तिथि:---05-06-1993 )
बुधवार, 15 सितंबर 2010
ग़ज़ल:--- " चैन से अब तक ना सोया "
जब से तेरे शहर से बिछड़ा,चैन से अब तक ना सोया
आसमान से टूटा तारा,तू क्या जाने कितना रोया
बरसों भटका दूर किनारे,सदियाँ गुज़रीं रात अंधेरे
बरसों थामी तेरी हसरत,तेरा दामन हो गोया
तुझ से अलग ना कुछ हूँ,तेरा साथ ही सब कुछ था
तुम बिन क्या ये जीना-मरना,क्या जागा,मैं क्या सोया
मेरा तसव्वुर मुँह ताके है,किस के ख्वाब भरूँ इस में
तेरे बिना हैं फ़क़त खलाएँ,तुम बिन यां पे कुछ ना होया
( रचना-तिथि:---22-08-1999 )
आसमान से टूटा तारा,तू क्या जाने कितना रोया
बरसों भटका दूर किनारे,सदियाँ गुज़रीं रात अंधेरे
बरसों थामी तेरी हसरत,तेरा दामन हो गोया
तुझ से अलग ना कुछ हूँ,तेरा साथ ही सब कुछ था
तुम बिन क्या ये जीना-मरना,क्या जागा,मैं क्या सोया
मेरा तसव्वुर मुँह ताके है,किस के ख्वाब भरूँ इस में
तेरे बिना हैं फ़क़त खलाएँ,तुम बिन यां पे कुछ ना होया
( रचना-तिथि:---22-08-1999 )
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिंदी दिवस पर विशेष:::" इतना तो फाल्ट चलता है "
मेरी बात सुन कर न रह जाना दंग,
बिकोज,हिंदी इस माय मदर टंग |
मेरा हिंदी-प्रेम बहुत गहरा है,
मैं स्पीकता हिंदी हूँ,रीडता हिंदी हूँ,
ईवन आई आलवेज ट्राई,
मेरी हिंदी हो हाई-फाई |
वैसे तो मेरा हर स्पीच हिंदी में होता है,
बीच-बीच में हर दूसरा वर्ड इंग्लिश का होता है |
मैं आलवेज हिंदी की प्रोग्रेस चाहता हूँ,
दूसरी लैंग्वेजों से इस की रेस चाहता हूँ |
मैं जब भी हिंदी में ताकता हूँ तो ईज़ी होता हूँ,
वैसे मैं ज़्यादातर इंग्लिश में बिजी होता हूँ |
हिंदी मेरी ड्रीम लैंग्वेज है,
मैं जब स्लीपता हूँ तो ड्रीम में भी हिंदी बोलता हूँ,
सुबह-सुबह इंग्लिश न्यूज़ पेपर में हिंदी टटोलता हूँ |
अब आटे में इतना तो साल्ट चलता है,
माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स,
लैंग्वेज में इतना फाल्ट तो चलता है | |
( रचना-तिथि:---15-09-2006 )
बिकोज,हिंदी इस माय मदर टंग |
मेरा हिंदी-प्रेम बहुत गहरा है,
मैं स्पीकता हिंदी हूँ,रीडता हिंदी हूँ,
ईवन आई आलवेज ट्राई,
मेरी हिंदी हो हाई-फाई |
वैसे तो मेरा हर स्पीच हिंदी में होता है,
बीच-बीच में हर दूसरा वर्ड इंग्लिश का होता है |
मैं आलवेज हिंदी की प्रोग्रेस चाहता हूँ,
दूसरी लैंग्वेजों से इस की रेस चाहता हूँ |
मैं जब भी हिंदी में ताकता हूँ तो ईज़ी होता हूँ,
वैसे मैं ज़्यादातर इंग्लिश में बिजी होता हूँ |
हिंदी मेरी ड्रीम लैंग्वेज है,
मैं जब स्लीपता हूँ तो ड्रीम में भी हिंदी बोलता हूँ,
सुबह-सुबह इंग्लिश न्यूज़ पेपर में हिंदी टटोलता हूँ |
अब आटे में इतना तो साल्ट चलता है,
माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स,
लैंग्वेज में इतना फाल्ट तो चलता है | |
( रचना-तिथि:---15-09-2006 )
सोमवार, 13 सितंबर 2010
" एक कविता अटल जी के लिए "
( यह कविता शुचितापूर्ण राजनीति के अंतिम स्तम्भ श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नाम है | भारतमाता को सदैव इस बात का मान रहेगा कि इस ने ऐसे सपूत को जन्म दिया | मुझे गर्व है कि मैंने इस दौर में जन्म लिया है और अटल जी को देखा है | अभी यह कविता यहाँ टाइप करने की गति बहुत धीमे है,क्योंकि आँखें बार-बार छलछला रही हैं और इन्हें बार-बार पौंछना पड़ रहा है | पता नहीं क्यों | कह नहीं सकता कि ईश्वर को अब क्या मंजूर है ?अफ़सोस तो सिर्फ़ इस बात का है कि अटल जी अब राजनीति को किनारे कर चुके हैं | ईश्वर इन का साया हमारे सर पे सदा रखे | यह रचना श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व-काल में ११ व १३ मई,१९९८ के 'पोकरण-२' के तत्काल लिखी गयी थी | राष्ट्रीय गर्व के इस अवसर पर 'चीन में बरसात होने पर प.बंगाल-केरल में नहाने वाले' 'उलटेमार्गियों' ने मुँह सिल लिया तो गांधी बाबा का नाम ले-ले कर मरे जाने वाले भी अपनी भूमिका पर प्रश्न-चिह्न लगवा बैठे | )
ऐ मेरे वतन के लोगो !सुनो,
आँखों में भर लो अंगारे,
तपती-जलती भारतमाता ,
आओ,फिर से तुम्हें पुकारे | |
आज उठा लो सिर,के मुल्क,
की शान बढ़ानी है दुनिया में,
पोकरण के झटकों से पेट में,
मरोड़ उठी है दुनिया के;
अब वक़्त वो आ पहुँचा है,
भीख मांगना बंद करें हम,
थोड़े-से आसरे की ख़ातिर,
यां-वां झाँकना बंद करें हम;
अमरीका ना होगा तो क्या,
भूखों मर जाएँगे हम ?
वक़्त मुक़ाबिल है अपने,
ख़ुद को साबित कर देंगे हम;
आज हमें है गर्व,प' न उन को,
जो साम्यवादी कहाते हैं,
जो माथे की जूठन खाते हैं,
और मुँह का झूठ पचाते हैं;
राष्ट्र-गर्व के इस मौक़े पर,
उन के मुँह क्यों बंद ही रहे,
ओ बरसों के देशद्रोहियो !
शब्द गर्व के क्यों ना कहे ?
रखो याद हे देशवासियो !
इन्हें कभी न माफ़ करना,
भारतमाता के इस कलंक को,
मौक़ा मिलते ही साफ़ करना;
कुर्सी के दानव चुप हैं पड़े,
कोई उलटा-सीधा कहता है,
'पोकरण' की हिम्मत है उसकी,
जिस में राष्टवाद हर पल बहता है,
जो देता है राष्ट्रवाद के साथ,
सदा से अपना ही ये परिचय'
"हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,
रग-रग हिन्दू मेरा परिचय | | "
ऐ मेरे वतन के लोगो !सुनो,
आँखों में भर लो अंगारे,
तपती-जलती भारतमाता ,
आओ,फिर से तुम्हें पुकारे | |
आज उठा लो सिर,के मुल्क,
की शान बढ़ानी है दुनिया में,
पोकरण के झटकों से पेट में,
मरोड़ उठी है दुनिया के;
अब वक़्त वो आ पहुँचा है,
भीख मांगना बंद करें हम,
थोड़े-से आसरे की ख़ातिर,
यां-वां झाँकना बंद करें हम;
अमरीका ना होगा तो क्या,
भूखों मर जाएँगे हम ?
वक़्त मुक़ाबिल है अपने,
ख़ुद को साबित कर देंगे हम;
आज हमें है गर्व,प' न उन को,
जो साम्यवादी कहाते हैं,
जो माथे की जूठन खाते हैं,
और मुँह का झूठ पचाते हैं;
राष्ट्र-गर्व के इस मौक़े पर,
उन के मुँह क्यों बंद ही रहे,
ओ बरसों के देशद्रोहियो !
शब्द गर्व के क्यों ना कहे ?
रखो याद हे देशवासियो !
इन्हें कभी न माफ़ करना,
भारतमाता के इस कलंक को,
मौक़ा मिलते ही साफ़ करना;
कुर्सी के दानव चुप हैं पड़े,
कोई उलटा-सीधा कहता है,
'पोकरण' की हिम्मत है उसकी,
जिस में राष्टवाद हर पल बहता है,
जो देता है राष्ट्रवाद के साथ,
सदा से अपना ही ये परिचय'
"हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,
रग-रग हिन्दू मेरा परिचय | | "
रविवार, 12 सितंबर 2010
" मौत '
मौत---
साँसों के सफ़र में,
ज़िन्दगी के मुसाफ़िर की मंज़िल |
मौत---
मेरी ग़ज़ल का मक्ता,
जिस में मेरा नाम लिखा है |
मौत---
दिन डूबे बाद,
बिच्छूपत्ती का फूल |
मौत---
दिलबर की,
आँखों की नीली झील |
(रचना-तिथि:---21-08-1994 )
साँसों के सफ़र में,
ज़िन्दगी के मुसाफ़िर की मंज़िल |
मौत---
मेरी ग़ज़ल का मक्ता,
जिस में मेरा नाम लिखा है |
मौत---
दिन डूबे बाद,
बिच्छूपत्ती का फूल |
मौत---
दिलबर की,
आँखों की नीली झील |
(रचना-तिथि:---21-08-1994 )
शनिवार, 11 सितंबर 2010
ग़ज़ल---" सच को चाहने वाले पागल "
या तो मेरी आँखें पागल
या पंछी की पाँखें पागल
आग लगी हरसाये पागल
आँसू क्यूं बरसाये पागल
या तो सारी गिनती उलटी
या फिर गिनने वाले पागल
आँखें रंग बदल लेती हैं
लोग कहाँ ना बदले पागल
कौरव-दल ताक़त वाला है
सच को चाहने वाले पागल
बेकार हुए तेरे सब रिश्ते
अपने को समझा ले पागल
'कुमार' तेरे घर हरियाली है
तू ही धूप बुला ले पागल
(रचना-तिथि:---09-05-1999)
या पंछी की पाँखें पागल
आग लगी हरसाये पागल
आँसू क्यूं बरसाये पागल
या तो सारी गिनती उलटी
या फिर गिनने वाले पागल
आँखें रंग बदल लेती हैं
लोग कहाँ ना बदले पागल
कौरव-दल ताक़त वाला है
सच को चाहने वाले पागल
बेकार हुए तेरे सब रिश्ते
अपने को समझा ले पागल
'कुमार' तेरे घर हरियाली है
तू ही धूप बुला ले पागल
(रचना-तिथि:---09-05-1999)
" हाँ,ये नहीं हुआ "
मैं---
नहीं करता शिकवा
वक़्त से |
नहीं हूँ नाराज़
किस्मत से |
रूठा नहीं हूँ
भगवान् से |
मैंने---
इन से तो नहीं माँगा था
तुम्हें |
मैंने---
तुम से माँगा था
वक़्त,
तुम से चाही थी
क़िस्मत,
तुम से पाना चाहा था
भगवान्;
मैंने---
तुम्हें माँगा था |
(रचना-तिथि:---22-08-1998 )
नहीं करता शिकवा
वक़्त से |
नहीं हूँ नाराज़
किस्मत से |
रूठा नहीं हूँ
भगवान् से |
मैंने---
इन से तो नहीं माँगा था
तुम्हें |
मैंने---
तुम से माँगा था
वक़्त,
तुम से चाही थी
क़िस्मत,
तुम से पाना चाहा था
भगवान्;
मैंने---
तुम्हें माँगा था |
(रचना-तिथि:---22-08-1998 )
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
" ये है मेरा हिन्दुस्तान "
( पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त का कहना है कि हर तीसरा हिन्दुस्तानी भ्रष्ट है | निश्चित रूप से यह तीसरा हिन्दुस्तानी हम में से वह है,जिस पर देश के हित-सम्पादन की ज़िम्मेदारी है | )
बस्ती-बस्ती रैन-अन्धेरे,
गलियाँ जैसे भूतों के डेरे ,
जिन पे मुल्क टिका है यारो,
वे हैं भ्रष्टाचार की खान,
ये है मेरा हिन्दुस्तान |
पूछ रही है देश की माटी,
मेरे लाल कहाँ हैं खोये,
मेरी अस्मत ख़ातिर लुट गये,
ऐसे लाल क्यूँ आज न होये,
ये हैं कैसे लाल जो बेचें,
चौराहों पर मेरा मान,
ये है मेरा हिन्दुस्तान |
नीम बेहोशी हम हैं सोये,
देश की चिंता कौन करेगा ?
लूट मची है घर भरने को,
कौन देश के कष्ट हारेगा ?
कौन बुझाए नक्सल की आग ?
किस को है कश्मीर का ध्यान ?
ये है मेरा हिन्दुस्तान | |
(रचना-तिथि:---30-12-1999)
बस्ती-बस्ती रैन-अन्धेरे,
गलियाँ जैसे भूतों के डेरे ,
जिन पे मुल्क टिका है यारो,
वे हैं भ्रष्टाचार की खान,
ये है मेरा हिन्दुस्तान |
पूछ रही है देश की माटी,
मेरे लाल कहाँ हैं खोये,
मेरी अस्मत ख़ातिर लुट गये,
ऐसे लाल क्यूँ आज न होये,
ये हैं कैसे लाल जो बेचें,
चौराहों पर मेरा मान,
ये है मेरा हिन्दुस्तान |
नीम बेहोशी हम हैं सोये,
देश की चिंता कौन करेगा ?
लूट मची है घर भरने को,
कौन देश के कष्ट हारेगा ?
कौन बुझाए नक्सल की आग ?
किस को है कश्मीर का ध्यान ?
ये है मेरा हिन्दुस्तान | |
(रचना-तिथि:---30-12-1999)
बुधवार, 8 सितंबर 2010
" कुछ ना कहो "
सर्दी के मौसम में
गाँव के ढलते दिन में
औसारे में बैठे
चाय पीते
हुक्का गुड़गुड़ाते
बतियाते
बूढ़े की ज़िन्दगी
नहीं मांगती
अब कोई तफ़सील |
(रचना-तिथि:---14-09-1998)
गाँव के ढलते दिन में
औसारे में बैठे
चाय पीते
हुक्का गुड़गुड़ाते
बतियाते
बूढ़े की ज़िन्दगी
नहीं मांगती
अब कोई तफ़सील |
(रचना-तिथि:---14-09-1998)
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
" बेनूर उदासियाँ "
( उस आत्मा के नाम,जो 25 जनवरी,1999 को भांजे के रूप में आयी और 28 जनवरी,1999 को चली गयी )
बियाबां में,
उजाड़ भरे दश्त में,
कंकड़ों का सिरहाना किये,
उदास हवाओं के साये में,
गुमशुदा-सी फ़जां के दामन में,
तन्हा-सा,
शबनमी मुस्कान छलकाये
अपने शीरीं लबों पे,
काँटों को दामन में लिये
आरामफ़रमा है
वो;
जिसे नहीं पता
के लायी हैं,
हवाएँ
समेट कर
बेनूर उदासियाँ |
(रचना-तिथि:---03-02-1999)
बियाबां में,
उजाड़ भरे दश्त में,
कंकड़ों का सिरहाना किये,
उदास हवाओं के साये में,
गुमशुदा-सी फ़जां के दामन में,
तन्हा-सा,
शबनमी मुस्कान छलकाये
अपने शीरीं लबों पे,
काँटों को दामन में लिये
आरामफ़रमा है
वो;
जिसे नहीं पता
के लायी हैं,
हवाएँ
समेट कर
बेनूर उदासियाँ |
(रचना-तिथि:---03-02-1999)
सोमवार, 6 सितंबर 2010
" तुम्हारी याद "
मुस्कुराहट---
सुबुह के सूरज की
बादलों के बीच;
जिस की ख़ातिर
जागता हूँ ,
सारी रात---मैं |
ललाई---
जाते दिन की
बिछड़े बादलों के बीच;
जिस की ख़ातिर
काटता हूँ ,
सारा दिन---मैं |
मेरे वजूद का
पोर-पोर है---
तुम्हारी याद | |
(रचना-तिथि:---22-08-1998)
सुबुह के सूरज की
बादलों के बीच;
जिस की ख़ातिर
जागता हूँ ,
सारी रात---मैं |
ललाई---
जाते दिन की
बिछड़े बादलों के बीच;
जिस की ख़ातिर
काटता हूँ ,
सारा दिन---मैं |
मेरे वजूद का
पोर-पोर है---
तुम्हारी याद | |
(रचना-तिथि:---22-08-1998)
रविवार, 5 सितंबर 2010
" अभी बंद न करो ये आवाज़ "
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के अभी तो ये आवाज़ ज़िन्दा रक्खो
के अभी तो ज़िन्दगी ने करवट ली है
के इस के सुनसान किनारों से टकराकर
लौट आने दो अपनी सदाओं को
सर-माथे लगा लो,गले डाल लो
इस की बंदिशों को,इस की सज़ाओं को ||
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के अभी तो बाँहों में दर्द संभाले
अधमुंदी ज़िन्दगी जाग रही है
के अभी बुझा नहीं है आखरी चराग़
के अभी तो पलकों में बाक़ी है नमी
के अभी तो आँखों में बाक़ी है खून
के अभी तो हमारा पासे-जब्त ज़िंदा है
के अभी तो कुछ ज़ख्मों की जगह बाक़ी है ||
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के इसी की ख़्वाहिश में डूबे हैं कई दिन
के इसी की तमन्ना में मरीं हैं कई रातें
के इसी की ख़ातिर रो कर चली गयीं कई बरसातें
के इसी के वास्ते हैरान-सी है ज़िन्दगी
चाहो तो गुल कर दो इन चरागों को
अभी बंद न करो ये आवाज़
(रचना-तिथि:---14 फ़रवरी,1998)
शनिवार, 4 सितंबर 2010
"बिखरा हुआ पांडाल"
दिल तो टूटी डाल है,
बिखरा हुआ पांडाल है |
तुम यहाँ पे जी लोगे ?
यां तो चलाना मुहाल है |
भूख बजाये शाम-सवेरे,
ग़रीब का पेट खड़ताल है |
दिल के दरवाजे बंद क्यूं ?
वां भी क्या हड़ताल है ?
बेटे के डाह के पैसे मांगे,
ज़िन्दगी तो चांडाल है |
इन्सां यहाँ विक्रम है 'कुमार',
ख़ुशी यहाँ बेताल है |
(रचना-तिथि:---3 से 6 जनवरी,1995 )
बिखरा हुआ पांडाल है |
तुम यहाँ पे जी लोगे ?
यां तो चलाना मुहाल है |
भूख बजाये शाम-सवेरे,
ग़रीब का पेट खड़ताल है |
दिल के दरवाजे बंद क्यूं ?
वां भी क्या हड़ताल है ?
बेटे के डाह के पैसे मांगे,
ज़िन्दगी तो चांडाल है |
इन्सां यहाँ विक्रम है 'कुमार',
ख़ुशी यहाँ बेताल है |
(रचना-तिथि:---3 से 6 जनवरी,1995 )
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
"ग़ज़ल"
उस को अब मैं,कहाँ से लाऊँगा,
वैसा हमदम,कहाँ से पाऊँगा |
इम्तिहां मेरा,लेती है ज़िन्दगी,
मैं तो इस से,गुज़र भी जाऊँगा |
मेरी ग़ज़लें हैं,गीत जीवन के,
आख़री साँस तक,मैं गाऊँगा |
मैं सांच बोलता हूँ,बस्ती में,
सरे-बाज़ार,मारा जाऊँगा |
ये जुदाई तो,कोई बात नहीं,
तुम बुलाना,मैं लौट आऊँगा |
मुझ से मांगो न,मेरे बीते दिन,
अपने बिछड़े,कहाँ से लाऊँगा |
तुम से नाता जुड़ा है,कुछ ऐसे,
जहाँ जाऊँगा,तुम को पाऊँगा |
(रचना-तिथि:---21 मई,1995 )
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
" कोई अबोला चाँद-सा है जो "
( कुछ मित्रों का सुझाव मिला है कि यदि काव्य-रचना के साथ-साथ उस कि रचना-तिथि भी उल्लेखित कर दी जाए तो और भी अच्छा रहेगा | सो हाजिर है सेवा में यह भी | " कुछ भी तो नहीं बदला" और " क्या ये भी नहीं होगा " की रचना-तिथि २२ अगस्त,१९९८ है | )
कितने गुज़रे चाँद अकेले
फिर भी रातें रहीं अकेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
कितने दर्द जलाए हम ने
कितनी आहें ठंडी कीं
कितने पिरोये आँख के मोती
कितनी सीली रातें जीं
फिर भी सूनी रही हमारी
मन नगरी की दुखिया हवेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
रोज़ उकेरे चित्र किसी के
रोज़ किसी को आवाज़ें दीं
रोज़ किसी का ख़्वाब जिया
रोज़ कई तनहाइयाँ पीं
खोज हवा ना ला पायी हल
उलझी रही जीवन की पहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
तपते तारे,जलती सर्दी
मरी चाँदनी,बर्फ-सी गर्मी
भरे हुए सन्नाटे साथी
ख़ाली जीवन,ख़ाली नगरी
ख़ाली-ख़ाली तस्वीरें ही
दीवारों की बनीं सहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
(रचना-तिथि:---२१-०१-२०००)
कितने गुज़रे चाँद अकेले
फिर भी रातें रहीं अकेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
कितने दर्द जलाए हम ने
कितनी आहें ठंडी कीं
कितने पिरोये आँख के मोती
कितनी सीली रातें जीं
फिर भी सूनी रही हमारी
मन नगरी की दुखिया हवेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
रोज़ उकेरे चित्र किसी के
रोज़ किसी को आवाज़ें दीं
रोज़ किसी का ख़्वाब जिया
रोज़ कई तनहाइयाँ पीं
खोज हवा ना ला पायी हल
उलझी रही जीवन की पहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
तपते तारे,जलती सर्दी
मरी चाँदनी,बर्फ-सी गर्मी
भरे हुए सन्नाटे साथी
ख़ाली जीवन,ख़ाली नगरी
ख़ाली-ख़ाली तस्वीरें ही
दीवारों की बनीं सहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
(रचना-तिथि:---२१-०१-२०००)
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