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शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

" फराज़िन्द-ए-हिन्दोस्तान "

( अज़ीम शख्सियत मरहूम लालबहादुर शास्त्री जी को श्रद्धांजलि )



हिन्दोस्तां को आप-सा,कोई रहनुमा मिले 
हादिसों की ज़द में,अब कोई रास्ता मिले

इलाहबाद की गलियों से उठा,हिन्दोस्तां पे छा गया 

यूँ लगा इक और सूरज,आसमां पर आ गया

गंगा के पानी-सी सादा,ज़िन्दगी उस की थी यारो
हुक्मरां कैसे जिया करते हैं,ये बतला गया

क़द का था छोटा वो लेकिन,हौंसलों का बादशाह
ख़ुद मुख्तारी के तरीक़े मुल्क को सिखला गया

वफ़ा-शियार-ए-मुल्क था,वो आखिरी दम तक रहा
वतन-परस्ती की शमा,हर दिल में रौशन कर गया

दुश्मनों के हमलों को ललकारा लालबहादुर ने
हिन्दोस्तान पूरा का पूरा,उस के संग बढ़ आया था

पाक के नापाक इरादे मटियामेट उस ने किये
दुश्मनों को दिन में तारे,जांबाज़ वो दिखला गया

सर मगर ऊँचा रहा हिन्दोस्तान का उस के दम
हिन्दोस्तान का वीर वो हंगाम को झुठला गया

जहां-भर की ताक़तों से,दर नहीं सकता ये मुल्क
जोश-ए-तमनाओं का नेजा,इस तरह फहरा गया

मुल्क था आँखें बिछाए,था उसी का इंतज़ार
पर वो शांति-दूत अपने,अगले सफ़र पे चला गया

हर दिल में उट्ठी हूक औ,हर दिल का दामन चक था
लाल बहादुर मुल्क को,अश्कों से नहला गया


आ भी जो मुल्क को,तिरी ज़रुरत पेश है
नासबूर हैं हवाएँ जाने,वक़्त क्या दिखला गया

काश ! वो मिसाले-लाल बहादुर फिर मिले
'कुमार' गूंगी फ़रावां को,कहना जो सिखला गया

             (रचना-तिथि:---29-09-1994)

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