" कुछ लम्हे जब दिल की दीवारें कुरेच कर अन्दर उतर आते हैं,तो आँखों के ग़र्म पानी और दिल के जज़्बों को लफ़्ज़ों के साथ कर देता हूँ |... लोग कहते हैं कि मैंने ग़ज़लें-नज़्में कही हैं | "
रविवार, 3 अक्तूबर 2010
नज़्म---" तुम यानी तुम से परे "
तुम-
जिसकी मुस्कुराहट से,
खिली जाती हैं मेरी साँस ;
जिस के तसव्वुर से ,
सँवर-सँवर जाती है,
ज़िन्दगी मेरी |
तुम-
धुंद की गहरी गुफा में,
लिपटी-सहेजी,
छुई-मुई-सी पाकीज़गी;
दौड़ती-भागती नद्दी के,
शोख़ पानी में तैरता,
फूल |
तुम-
जिसके होने के अहसास से,
होता है मुझे,
ख़ुद के होने का अहसास;
तराई में,
चढ़ती शाम के साये में,
बढ़ती,
मासूम-कमसिन उदासी |
ओ परी-रू !
मैंने,
हँसते फूलों पर लिक्खी हैं,
सरगोशियाँ तेरे जिस्म की;
आबशारों की उछालों पर,
लिक्खे हैं बोल तेरी ख़ामुशी के |
तुम-
सुनो---हाँ---तुम;
बहुत मासूम है,
तिरी दोशीज़ ख़ूबसूरती;
बहुत कमसिन है,
तिरे लब की लर्ज़िश |
मिरे तसव्वुर के जंगल में,
तिरी आमद से,
आती है,
ख़यालों की बहार |
तिरे होंठों से,
नुमाया होते हैं,
चाँद रमूज़,
वक़्त-ए-रूबरू |
कितनी मरमरी है,
तिरे लफ़्ज़ों की छुअन,
तिरे होंठ,
करके कोई शरारत,
तान लेते हैं खामुशी,
और,
ये दिल मुज़्तरिब हो कर,
कहीं कुछ ढूँढ़ता रहता है |
तुम-
तुम से परे-
बहुत कुछ हो-
सब कुछ हो-
मिरी ख़ातिर |
(रचना-तिथि:---06-05-1998)
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तुम / जिसकी मुस्कुराहट से / खिली जाती हैं मेरी साँस ……… भाई गणेश जी आपकी मुस्कुराहट देखे काफी दिन महीने साल हो गए । अब यहां आपको देखकर सोचता हूं कि भगवान मजे में है । चित्र के बारे में कहीं मैं गलत तो नहीं सोच रहा हूं कृपया कविता को इतना स्पष्ट भी ना करें । आभार कि ऐसे दर्शन तो हुए, कभी मुलाकात भी होगी ।
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