( कुछ मित्रों का सुझाव मिला है कि यदि काव्य-रचना के साथ-साथ उस कि रचना-तिथि भी उल्लेखित कर दी जाए तो और भी अच्छा रहेगा | सो हाजिर है सेवा में यह भी | " कुछ भी तो नहीं बदला" और " क्या ये भी नहीं होगा " की रचना-तिथि २२ अगस्त,१९९८ है | )
कितने गुज़रे चाँद अकेले
फिर भी रातें रहीं अकेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
कितने दर्द जलाए हम ने
कितनी आहें ठंडी कीं
कितने पिरोये आँख के मोती
कितनी सीली रातें जीं
फिर भी सूनी रही हमारी
मन नगरी की दुखिया हवेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
रोज़ उकेरे चित्र किसी के
रोज़ किसी को आवाज़ें दीं
रोज़ किसी का ख़्वाब जिया
रोज़ कई तनहाइयाँ पीं
खोज हवा ना ला पायी हल
उलझी रही जीवन की पहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
तपते तारे,जलती सर्दी
मरी चाँदनी,बर्फ-सी गर्मी
भरे हुए सन्नाटे साथी
ख़ाली जीवन,ख़ाली नगरी
ख़ाली-ख़ाली तस्वीरें ही
दीवारों की बनीं सहेली
बोली बोले थक गयीं आँखें
फिर भी बातें रहीं अकेली
(रचना-तिथि:---२१-०१-२०००)
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