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शनिवार, 4 सितंबर 2010

"बिखरा हुआ पांडाल"

दिल तो टूटी डाल है,
बिखरा हुआ पांडाल है |

तुम यहाँ पे जी लोगे ?
यां तो चलाना मुहाल है |

भूख बजाये शाम-सवेरे,
ग़रीब का पेट खड़ताल है |


दिल के दरवाजे बंद क्यूं ?
वां भी क्या हड़ताल है ?

बेटे के डाह के पैसे मांगे,
ज़िन्दगी तो चांडाल है |

इन्सां यहाँ विक्रम है 'कुमार',
ख़ुशी यहाँ बेताल है | 


                        (रचना-तिथि:---3 से 6 जनवरी,1995 )

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