( यह कविता शुचितापूर्ण राजनीति के अंतिम स्तम्भ श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नाम है | भारतमाता को सदैव इस बात का मान रहेगा कि इस ने ऐसे सपूत को जन्म दिया | मुझे गर्व है कि मैंने इस दौर में जन्म लिया है और अटल जी को देखा है | अभी यह कविता यहाँ टाइप करने की गति बहुत धीमे है,क्योंकि आँखें बार-बार छलछला रही हैं और इन्हें बार-बार पौंछना पड़ रहा है | पता नहीं क्यों | कह नहीं सकता कि ईश्वर को अब क्या मंजूर है ?अफ़सोस तो सिर्फ़ इस बात का है कि अटल जी अब राजनीति को किनारे कर चुके हैं | ईश्वर इन का साया हमारे सर पे सदा रखे | यह रचना श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व-काल में ११ व १३ मई,१९९८ के 'पोकरण-२' के तत्काल लिखी गयी थी | राष्ट्रीय गर्व के इस अवसर पर 'चीन में बरसात होने पर प.बंगाल-केरल में नहाने वाले' 'उलटेमार्गियों' ने मुँह सिल लिया तो गांधी बाबा का नाम ले-ले कर मरे जाने वाले भी अपनी भूमिका पर प्रश्न-चिह्न लगवा बैठे | )
ऐ मेरे वतन के लोगो !सुनो,
आँखों में भर लो अंगारे,
तपती-जलती भारतमाता ,
आओ,फिर से तुम्हें पुकारे | |
आज उठा लो सिर,के मुल्क,
की शान बढ़ानी है दुनिया में,
पोकरण के झटकों से पेट में,
मरोड़ उठी है दुनिया के;
अब वक़्त वो आ पहुँचा है,
भीख मांगना बंद करें हम,
थोड़े-से आसरे की ख़ातिर,
यां-वां झाँकना बंद करें हम;
अमरीका ना होगा तो क्या,
भूखों मर जाएँगे हम ?
वक़्त मुक़ाबिल है अपने,
ख़ुद को साबित कर देंगे हम;
आज हमें है गर्व,प' न उन को,
जो साम्यवादी कहाते हैं,
जो माथे की जूठन खाते हैं,
और मुँह का झूठ पचाते हैं;
राष्ट्र-गर्व के इस मौक़े पर,
उन के मुँह क्यों बंद ही रहे,
ओ बरसों के देशद्रोहियो !
शब्द गर्व के क्यों ना कहे ?
रखो याद हे देशवासियो !
इन्हें कभी न माफ़ करना,
भारतमाता के इस कलंक को,
मौक़ा मिलते ही साफ़ करना;
कुर्सी के दानव चुप हैं पड़े,
कोई उलटा-सीधा कहता है,
'पोकरण' की हिम्मत है उसकी,
जिस में राष्टवाद हर पल बहता है,
जो देता है राष्ट्रवाद के साथ,
सदा से अपना ही ये परिचय'
"हिन्दू तन-मन,हिन्दू जीवन,
रग-रग हिन्दू मेरा परिचय | | "
आपकी भावनाओं कि कद्र करते है.
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें