" कुछ लम्हे जब दिल की दीवारें कुरेच कर अन्दर उतर आते हैं,तो आँखों के ग़र्म पानी और दिल के जज़्बों को लफ़्ज़ों के साथ कर देता हूँ |... लोग कहते हैं कि मैंने ग़ज़लें-नज़्में कही हैं | "
रविवार, 5 सितंबर 2010
" अभी बंद न करो ये आवाज़ "
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के अभी तो ये आवाज़ ज़िन्दा रक्खो
के अभी तो ज़िन्दगी ने करवट ली है
के इस के सुनसान किनारों से टकराकर
लौट आने दो अपनी सदाओं को
सर-माथे लगा लो,गले डाल लो
इस की बंदिशों को,इस की सज़ाओं को ||
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के अभी तो बाँहों में दर्द संभाले
अधमुंदी ज़िन्दगी जाग रही है
के अभी बुझा नहीं है आखरी चराग़
के अभी तो पलकों में बाक़ी है नमी
के अभी तो आँखों में बाक़ी है खून
के अभी तो हमारा पासे-जब्त ज़िंदा है
के अभी तो कुछ ज़ख्मों की जगह बाक़ी है ||
अभी बंद न करो ये आवाज़,
के इसी की ख़्वाहिश में डूबे हैं कई दिन
के इसी की तमन्ना में मरीं हैं कई रातें
के इसी की ख़ातिर रो कर चली गयीं कई बरसातें
के इसी के वास्ते हैरान-सी है ज़िन्दगी
चाहो तो गुल कर दो इन चरागों को
अभी बंद न करो ये आवाज़
(रचना-तिथि:---14 फ़रवरी,1998)
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सुन्दर अभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 7- 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
जवाब देंहटाएंकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
vaah bahut sunder abhivyakti.
जवाब देंहटाएं्बहुत सुन्दर प्रस्तुति…………………॥बधाई
जवाब देंहटाएंबेह्द खूबसूरत भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/09/270.html
जवाब देंहटाएंapani post yahan bhi dekhen ..