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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

नज़्म---" कसक "

ज़िन्दगी में,
दश्त-दर-दश्त,
हम ने ढूँढा उसे,
      जो,
मिल कर बिछड़ता रहा |
      हम मुश्ताक थे,
के ज़िन्दगी लहलहाए,
      हवा का मीठा अंदाज़ आए,
      इन पुरनम आँखों के दाग़ धुलें,
मगर,
      बियाबाने-ज़िन्दगी में,
वक़्त के खूंखार भेड़िये ने,
हमें मंजिल से दूर रखा |
हम,
      सहरा में नहीं थे,
      प' हम चश्मे से बहुत दूर थे,
               जैसे,
पहाड़ पर से गंगा निकले,
पर पहाड़ प्यासा ही रह जाए,
              सिर्फ रास्ता बना रहे |
हमें सभी,
रास्ता बना कर आगे बढे,
               और,
गयी नद्दी की तारा फिर नहीं लौटे,
                       कभी नहीं लौटे |

(रचना-तिथि:---24-12-1993 )

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