ज़िन्दगी में,
दश्त-दर-दश्त,
हम ने ढूँढा उसे,
जो,
मिल कर बिछड़ता रहा |
हम मुश्ताक थे,
के ज़िन्दगी लहलहाए,
हवा का मीठा अंदाज़ आए,
इन पुरनम आँखों के दाग़ धुलें,
मगर,
बियाबाने-ज़िन्दगी में,
वक़्त के खूंखार भेड़िये ने,
हमें मंजिल से दूर रखा |
हम,
सहरा में नहीं थे,
प' हम चश्मे से बहुत दूर थे,
जैसे,
पहाड़ पर से गंगा निकले,
पर पहाड़ प्यासा ही रह जाए,
सिर्फ रास्ता बना रहे |
हमें सभी,
रास्ता बना कर आगे बढे,
और,
गयी नद्दी की तारा फिर नहीं लौटे,
कभी नहीं लौटे |
(रचना-तिथि:---24-12-1993 )
खूबसूरत नज़्म ..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार-बाबा नागार्जुन, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें