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शनिवार, 11 सितंबर 2010

ग़ज़ल---" सच को चाहने वाले पागल "

या तो मेरी आँखें पागल
या पंछी की पाँखें पागल

आग लगी हरसाये पागल
आँसू क्यूं बरसाये पागल

या तो सारी गिनती उलटी
या फिर गिनने वाले पागल

आँखें रंग बदल लेती हैं
लोग कहाँ ना बदले पागल

कौरव-दल ताक़त वाला है
सच को चाहने वाले पागल

बेकार हुए तेरे सब रिश्ते
अपने को समझा ले पागल

'कुमार' तेरे घर हरियाली है
तू ही धूप बुला ले पागल


(रचना-तिथि:---09-05-1999) 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

    देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

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