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बुधवार, 1 सितंबर 2010

" क्या ये भी नहीं होगा ? "

नयी हवाओं में,
भीड़ में ज़िन्दगी की,
अपनी-अपनी साँसें,काँधे पर टाँगे ;
                 ग़मो-निशात से जूझते,
                 भागते रोज़-ब-रोज़ ,
                 ज़िन्दगी से ;
  मिल जाएँ कहीं,
  यकायक---
               तो---
                        शायद पहचान लें,
                        एक-दूजे को |

2 टिप्‍पणियां:

  1. यकायक पहचान, बहुत सुन्‍दर. धन्‍यवाद.

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  2. कुमार साब, स्वागत.
    ये स्वागत एक शायर, एक कवि, एक रचनाकार का है एक साथी का है जो कुम्भ के मेले में खो गया. मिला वापस तो उस के पास सब कुछ था लेकिन प्राथमिकतायें बदली हुई थी. मुझे मेरा वह साथी चाहिए ही चाहिए था, ये जिद थी लेकिन उस से थी जिस के आगे मैं असहाय था... मेरी मिन्नत का असर कहूँ या खुद की हूक. एक वास्तविक रचनाकार फिर लौटा है. इस लौटने का मैं स्वागत करता हूँ क्यूंकि मैं यह मानता हूँ, हमेशा कहा भी है के कुमार साब ! आप इस क्षेत्र में अपनी योग्यता से हो और मैं धक्के से...

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