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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

ग़ज़ल:--- " हमराह मिरा कहाँ रहा ? "

हर शजर तिरी याद का,धू-धू कर के जल रहा,
बेबसों की जमात में, मेरा दिल अव्वल रहा

हर नफ़स में है घुटन,औ' हर तसव्वुर ख़ाक है,
शहरे-दिल में अब के तो,मौत-सा मातम रहा


चल रहे थे हम मुसलसल,वक़्त की रफ़्तार से,
क्या पता इस राह में,हमराह मिरा कहाँ रहा ?

वहीँ पे अपने दिल की, ख़्वाहिशें बेकार हैं,
जिस जगह पे तेरे दिल का,ना कोई रस्ता रहा

अपनी हालत खुद बयां,करना हमें आता नहीं,
जिसे जो कुछ देखना हो,देख ले मैं कां रहा ?

एक उस के नाम से ही,'कुमार' वाबस्ता न रह,
क्या करेगा तब अगर जब,वो भी बेवफ़ा रहा

(रचना-तिथि:---18-04-1993 ) 

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