(यह रचना साप्ताहिक फ़िल्मी अख़बार 'एक्सप्रेस स्क्रीन,मुंबई' में 24-12-1994 को प्रकशित हो चुकी है | )
जब भी हद से गुज़र गया पानी
समझो,आँख का मर गया पानी
हम को डुबोने ही आया था तूफां
हम को डुबो के उतर गया पानी
भटका है परबत-नदिया-दरिया
तब फिर अपने घर गया पानी
राहें अपनी खुद ही बनायीं
गाता-मचलता जिधर गया पानी
ग़म ने 'कुमार' का दिल सोखा है
ख़ुशियों का जाने किधर गया पानी
वाह ..बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहम को डुबोने ही आया था तूफां
हम को डुबो के उतर गया पानी
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमराठी कविता के सशक्त हस्ताक्षर कुसुमाग्रज से एक परिचय, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें