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शनिवार, 18 सितंबर 2010

नज़्म---" लम्हात की परछाइयाँ "

हज़ारों सिलसिलों के आगे
हज़ारों-हज़ार मंज़िलों के पार
चलेगा
वक़्त का कारवां |
फ़ना हो जाएँगी सारी तस्वीरें
धुन्दले हो जाएँगे तमाम नक्श |
मगर---
होंगे हम रू-ब-रू
खल्वतों के जब 
याद रहेंगे ये लम्हे
के जब---
ज़िंदगियाँ लहलहायी हैं;
के जब---
लम्हात खिले हैं |
हाँ,ये पुरकशिश मौहब्ब्तें
खींच लाएँगी हमें
तब---फिर इन्हीं लम्हात में |
सरगोशियाँ करेंगी यादें
इन्हीं लम्हात की
परछाइयों में |

(रचना-तिथि:---21-08-1999)

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